करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये 
वो मेरे दिल पे नया ज़ख़्म लगाने आये 
मेरे वीरान दरीचों में भी ख़ुश्बू जागे 
वो मेरे घर के दर-ओ-बाम सजाने आये 
उससे इक बार तो रूठूँ मैं उसी की मानिन्द 
और मेरी तरह से वो मुझ को मनाने आये 
इसी कूचे में कई उस के शनासा भी तो हैं 
वो किसी और से मिलने के बहाने आये 
अब न पूछूँगी मैं खोये हुए ख़्वाबों का पता 
वो अगर आये तो कुछ भी न बताने आये 
ज़ब्त की शहर-पनाहों की मेरे मालिक ख़ैर 
ग़म का सैलाब अगर मुझ को बहाने आये