भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!
उस निर्झरिणी की कल-धारा को बाँधे क्या कूल-किनारा!
देव-गिरा के मुक्तक-दाने खड़ी रहेगी कब तक गुनती?
अखिल जगत् की स्तब्ध अंजली से पावन-पीड़ा बह निकली!

तू मुग्धा, हतसंज्ञ करों से उन फूलों में क्या है चुनती!
पाएगी क्या! स्वयं अकिंचन दे बिखरे निज उर का रोदन!
बुझ जाएगी वह द्युति तो तू खड़ी ही रहेगी कर धुनती!
करुणे, तू खड़ी-खड़ी क्या सुनती!

लाहौर, 1936