द्वापर युग के बात छेकै, 
सुनोॅ धियान लगाय,
श्रीकृष्ण के पितामह 
यदुवंशी राजा शूरसेन कहाय।
राजा केॅ कन्या एक छेलै 
पृथा नाम धराय,
रूप गुणों सेॅ भरली छेलै 
दूर-दूर कीर्त्ति फैलाय।
शूरसेन के फूफेरा भाई, 
कुन्तीभोज नाम रखाय,
कुन्तीभोज निःसन्तान छेलै, 
पुत्रा इच्छा मन ललचाय।
निराश, उदास हुनका देखी, 
शूरसेन ने देलकै समझाय,
चिंता छोड़ोॅ भैय्या हमरोॅ 
पहलोॅ संतान देभौं हरसाय।
शूरसेन ने निज कन्या पृथा, 
कुन्तीभोज के गोद बैठाय,
हिनका घरोॅ ऐली पृथा, 
अब कुन्ती नाम रखाय।
अच्छा संयोग मिलला पर 
बिगड़लोॅ काम सुधरी जाय,
बुरा संयोग मिलला पर 
बनलोॅ काम भी बिगड़ी जाय।
अच्छा संयोग आबी गेलै, 
रिषि दुर्वासा ऐलै भोज दरबार,
सम्मान, स्वागत तेॅ होवे करलै, 
पूरा होलै सब शिष्टाचार।
रिषि वहीं पर रहेॅ लागलै 
सेवा में रत सब्भे परिवार,
विशेष भार कुन्ती पर छेलै, 
श्रद्धा प्रेम सेॅ लगैलकै पार।
सावधानी आरो सहनशीलता, 
सेवा, सुश्रुषा देखी केॅ,
रिषि दुर्वासा अति खुश भेलै, 
दिव्य मंत्रा के उपदेश दै केॅ।
जे देवता केॅ धियान करभेॅ 
जों ई मंत्रा पढ़ी केॅ,
तेॅ तोरा सामने परगट होत्हौं 
आपनों जैसनों तेजस्वी पुत्रा दै केॅ।
दुर्वासा रिषि केॅ मालूम छेलै 
आपनों दिव्य ज्ञान सेॅ,
कुन्ती केॅ पुत्रा नै होतै 
आपनों पति प्रसंग सेॅ।
यही लेली रिषि दुर्वासा देलकै 
कुन्ती केॅ मंत्रा खुशी सेॅ,
वै समय में कुन्ती तेॅ 
बालिका छेलै कम उमर सेॅ।
मंत्रा पावी केॅ बड़ी खुश छेलै, 
एक दिन उत्सुकता होलै मनों में,
प्रयोग करी केॅ देखी लियै 
की खूबी छै मंत्रों में।
प्रकाशमान किरण से भरलोॅ, 
उगलोॅ सूरज आकाशोॅ में,
वही सूरज केॅ धियान करी केॅ 
कुन्ती मंत्रा पढ़लकोॅ मनों में।
मंतर पढ़तैं नजारा बदललै 
बादल सें आकाश भरलै,
नजारा देखी केॅ कुन्ती 
मनों में बहुते अचरज भेलै।
सुन्दर युवक रूपों में 
सूरज भगवान परगट होलै,
मनमोहक, आकर्षक चेहरा देखी केॅ 
कुंती के मोॅन ललचाइये गेलै।
सुन्दर लड़की देखी केॅ 
लड़का तेॅ आकर्षित होय छै,
वैसें सुन्दर लड़का देखी केॅ 
लड़की भी खिंचाइये जाय छै ।
यहेॅ हालत कुन्ती के 
वै दिन होइये गेलोॅ छै,
अचरज भरलोॅ घटना देखी केॅ 
कुन्ती तेॅ घबराइये गेलोॅ छै।
घबराहट के साथें पूछलकै, 
‘‘तोंय के छेकोॅ भगवन ?
सूरजें कहलकै-‘‘प्रिये 
हम्में आदित्य छेकौं, भूलोॅ नै रिषि वचन।
हमरोॅ आवाहन तोंय करल्हेॅ, 
मंतर प्रवाह सेॅ होलै आगमन,
पुत्रा दान करै लेॅ तोरा, 
आवै लेॅ पड़लोॅ हमरा तोरोॅ भवन।
कुन्ती भय सें काँपतें हुवें
राखलकै आपनों विचार,
भगवन अखनी हम्में कन्या छी
पिता अधीन, छी लाचार।
कौतुहल वश रिषि दुर्वासा के मंतर 
करी बैठलों हम्में कदाचार,
लड़की नादान जानी केॅ आपनें 
अपराध क्षमा पर करोॅ विचार।
होनी तेॅ होय केॅ रहै छै
चाहे वू जेना हुवेॅ,
मंतर परभाव बेकार नै जाय छै
सबके ई बूझै हुवेॅ।
यै लेली सूरज वापस नै होलै
कैहनें कि मंतर झूठा नै हुवेॅ,
लोक निंदा सें डरलोॅ कुन्ती केॅ 
धीरज तेॅ बंधावै हुवेॅ।
रिषि कहलकै-‘राजकन्ये, 
डरोॅ नै तोंय, दै छिहौं वरदान,
कोय तरह के कलंक तोरा नै 
करत्हौं कहियोॅ परेशान।
हमरा सेॅ पुत्रा पावी केॅ भी, 
कुँवारापन नै होथौं मलान,
आखिर हारी-पारी केॅ कुन्ती
चेहरा पर लानलक मुस्कान।
जीवनदाता सूरज संयोग सेॅ 
होलै बालक हुनके समान,
तेजस्वी, सुन्दर बालक के साथें 
छेलै कवच-कुंडल महान।
आगू चली केॅ वेॅहेॅ बालक होलै 
विख्यात शस्त्राधारी जहान,
कर्ण नाम बालक के होलै
कुंती फेनु कुँवारी भेलै, सूरज के वरदान।
ऐसनों घटना घटला पर 
सब लड़की लज्जित होय छै,
हिरदय पर पत्थर राखी केॅ 
बच्चा केॅ कहीं फेकी दै छै।
वैंसे लोकनिंदा सेॅ बचै लंेली 
कुंती सोचेॅ विचारेॅ लागै छै,
अंत में मंथन करला पर 
बच्चा छोड़ै के विचार जागै छै।
एक संदुक में बंद करी केॅ 
नदी धार में बहाय देलकै,
गंगाधार में भांसलोॅ संदुक 
पर एक सारथी ने नजर गड़ैलकै।
जल से बाहर निकाली केॅ, 
खोली केॅ जबेॅ देखलकै,
वै संदुक में सुन्दर बच्चा 
गहरी नींद में सुतलोॅ पैलकै।
सारथी के नाम अधिरथ छेलै
संयोगोॅ सेॅ निःसन्तान छेलै,
तेजस्वी बालक पावी केॅ बड्डी खुश होलै
वोकरा लै केॅ घोॅर गेलै।
पत्नी राधा बच्चा देखी केॅ, 
पियार सेॅ छाती सेॅ लगैने छेलै,
सूरज संतान कर्ण केॅ राधा 
बड्डी परेम सेॅ पालने छेलै।