कर्ण का जन्म / प्रवीन अग्रहरि
एक रोज जब प्रचंड था सूर्य
उसके तेज से धधक रही थी धरा
और दीप्तिमान था सर्वस्व
तब एक कन्या बैठी थी निष्प्रभ
तपते रेत के ऊपर
खोज रही थी शीतल जल
खोद रही थी नाख़ूनों से
कर्कश थल।
फिर छोड़ दी अपनी सुधि
और आँख उसकी यूँ तनी
शुष्क पलकों से तपस को
एकटक निहारी
एकटक निहारी।
सूर्य आकुल हो गया,
उसकी आँख के निर्वात में
बनने चला वह वृष्टि मेघ
धूमिल हो रही थी दीप्ति उसकी
होने चला था अस्त मानो
सुंदरी के दृग में समाकर।
बन प्रेयशी कर जोड़ कर
बोली सखी सर ओढ़ कर
हे देवता! निज तेज को मुझमें समाहित कीजिये
इस तपश, अग्नि औ चमक के मूल को
मुझमें प्रवाहित कीजिये।
इस याचना से
कुछ फ़ैल गया था व्योम
और सहम गयी थी दिशा
वो रेत थोड़ा और निष्ठुर हो गया था
आकाश के नक्षत्र सारे डर गए थे।
एक पुंज आया नवयुवती के पास
एक देह मानो छू रहा उसके ह्रदय को
उसने आँखें मूँद ली।
सहसा बारिश हुई फिर उस धरा पर
और उग गए थे कल्पवृक्ष
उसके हाँथ ढीले हो गए
वो हो गई निष्प्राण
और सो गई।
सब शांत हो गया,
समय फिर चल पड़ा
अपनी रफ़्तार से...
शाम हुई
रात हुई
और रात्रि के पहले पहर में
सूर्योदय हुआ
कुंती की गोद में।