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कर्मठ / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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कर्म को जो भी धर्म समझकर,
आगे कदम बढ़ाता है,
वह महान कहलाता है, वह महान बन जाता है,
पूरब में जो नित्य उदित हो,
वह दिन भर श्रम करता है,
अन्धकार को रोज मिटाता,
जग प्रकाशमय करता है,
फिर दुनिया को नई दिशा दे,
संध्या को घर जाता है,
स्वार्थ रहित सेवा के कारण ही,
वह दिनकर कहलाता है॥1॥
कर्म को जो भी...

हिम खण्डों को तोड़-तोड़कर
खुद धारा बन जाती है,
हिमगिरि से सागर तक चलकर
सबको सुख पहुंचाती है,
गंगा भी श्रम करती है,
दिन रात धरा पर बहती है,
उसकी जल धारा के कारण
मरुथल भी लहराता है,
कर्म को जो भी धर्म समझकर॥2॥

नित्य सुबह सूरज से पहले,
जो खेतों पर जाता है
अपने अथक परिश्रम से जो
अन्नदेव उपजाता है,
स्वयं भले भूखा रह जाए
पर जग का पेट भराता है,
उसके इस बलिदान के कारण
वह धरती पुत्र कहाता है
कर्म को जो भी धर्म समझकर॥3॥

ईशवर ने दो पांव दिए है,
सदा अग्रसर रहने को,
उसने दो ही हाथ दिए है,
सदा कर्मरत रहने को,
जहाँ कर्म की पूजा होती,
वहाँ स्वर्ग बन जाता है,
जिसके श्रम से देश बढ़े
वह ही कर्मठ कहलाता है,
कर्म को जो भी धर्म समझकर
आगे कदम बढ़ाता है,
वह महान बन जाता है
वह महान कहलाता है।