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कर्षक मण्डल / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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हम कोटि-कोटि कर्षक-मण्डल
आ आकर्षक ई वसुन्धरा,
श्रमकणसँ सिंचित जे कहियो
रहिये न सकै’ छथि अनुर्वरा।
हम ताही धरतीकेर पुत्र
जे सभ दिन सभ किछु छथि सहैत,
धन-धान्य पूर्ण भण्डार जनिक
अछि आठ पहर भरले रहैत।
निज भुजबलपर विश्वास राखि
उठबै’ छी डेग अपन निश्चल,
कय सकी भुवन भरिकेर भरण
संकल्प हमर हृदयक निश्छल।
नहि अहंकार कय सकय स्पर्श
दुर्जेय शत्रु हम दीनताक,
अन्वेषक नूतनताक, किन्तु
गौरव रखैत प्राचीनताक।
जल-थल-नभ गिरि-गह्वर-सागर
सभपर अदम्य अधिकार हमर,
संघर्षशील जीवन-पथपर,
बाधासँ करिते रही समर।
सृष्टिक सुन्दर उपहार ग्रहण
करबाक कलामे बनि प्रवीण।
जगतीक प्राणमे फुकनिहार
हमही छी मधुमय शान्ति-वीण।
हमरे तार्किक मस्तिष्कक लग
अछि जग प्रपंच मानैत हारि,
हमरे मुट्ठीमे बन्द भेल
रहइछ झंझा, अन्हड़-बिहाड़ि।
हम सजग सतत राष्ट्रक प्रहरी
मानवता प्रति अति जागरूक,
हमरे ज्योतिक भयसँ पड़ाय
झट आँखि बन्द कयने उलूक।
श्रम-जलक बाढ़िमे दहा दैत-
छी कोमल हृदयक दुर्बलता,
भुजदण्ड ठोकि छी ठाढ़,
कनै’ अछि ठोहि पाड़ि कय निष्फलता।
संसारक घटना-चक्र चलय
हम ताही चक्रक धूरी छी,
लोहाक खानि ताकओ दुनिआ
हम प्रस्तुत रेजिस छूरी छी।