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कर न पाया सर कलम जब तीर से, तलवार से / डी.एम.मिश्र
Kavita Kosh से
कर न पाया सर कलम जब तीर से, तलवार से।
जाँ हमारी ले गया वो मुस्कराकर प्यार से।
वह समय था झूठ भी उस शख्स का लगता था सच,
यह समय है सच भी उसका है परे एतबार से।
देख पाता था न माथे का पसीना वो कभी,
अब वही बेफिक्र है अपने उसी बीमार से।
वो मोहब्बत, वो नज़ाकत, शोखियाँ वो अब कहाँ,
अब तो नाउम्मीद हूँ इस बेवफा सरकार से।
देखियेगा वो शिकारी भी फँसेगा जाल में,
आज ले ले लुत्फ़ वो मासूम के चीत्कार से।
उस तरफ है यार का घर, इस तरफ डेरा मेरा,
बीच में गहरी नदी है डर लगे मँझधार से।
खुश हूँ मैं दुनिया में अपनी माफ़ करना दोस्तो,
खौफ़ मैं खाने लगा अब हर बड़े क़िरदार से।