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कलकतिया गंगाजल / महेश उपाध्याय

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हिल-मिलकर टूटना
लुटना औ’ लूटना
रहने दे दोस्ती इनाम
अच्छा है दूर का सलाम

चाँदी की किर्च क्या उछाल दी
एक नई ग़ाली में ढाल दी
मानकर दवा पिएँ
या लड़ें, मरें, जिएँ
मुट्ठी-भर प्रश्नों का एक इन्तज़ाम

धार बहुत तेज़ है उधार की
भुनी नहीं हुण्डी सरकार की
कल का मायावी छल
कलकतिया गंगाजल
देता है ग़ाली औ’ लेता है दाम