कलकत्ता की एक सुबह / मृत्युंजय कुमार सिंह
फिर आई सुबह
रात की गुहा से लड़खड़ाते
मिंचमिंचाती आँख से
छाई की तरह छींटती
जीने के वज़ह,
एक प्रकाश-पुंज
आसमान से झुलाए
प्रदूषित साँस से
भरा सीना फुलाए,
सोचती है
इस बार
कर लेगी फ़तह,
फिर आई सुबह
तन्मयता से फुटपाथ पर
फलों की टोकरी सँजोती
हर फल में, दिख रही
शाम की रोटी
काट कर बोटी-बोटी
खा जायेंगे जिसे लोग
शीघ्र ही
रास्ते के कुत्तों की तरह
लहरा कर चोटी
उतर आयेंगे पिशाचों के दल,
कुतर खायेंगे
हर घड़ी, हर पल
चौराहे पर के
चबूतरे पर
कृत्रिम फन वाले
नाग के नीचे
महादेव के लिंग के इर्द-गिर्द
लगेगी भीड़,
आस्था -
कुछ होगी नीलाम
कुछ होगी ज़िबह
फिर आयी सुबह
आरम्भ हुआ
घड़ी-घंट
हो-हल्ला,
टनटनाता काली कड़ाही
बेचने निकला है
कोई घुघनी, छोला,
दही-भल्ला
गंदी हुगली नदी
के माध्यम से
शहर में पैठी गंगा
में धुल रहे कपड़े,
धुल रही गाड़ी,
होली खेल रहे
बच्चों-से
खलासी अनाड़ी,
चपर-चपर
पी रहा पानी
लंगड़ा कुत्ता,
पास ही नहा रही
एक भीड़, आधा नंगा,
जय हो पवित्र गंगा!
प्रकाश से चलेगी
पूरे दिन रस्साकशी,
सब दौड़ेंगे
कुछ पायेंगे, कुछ खोयेंगे,
कुछ लेकर
अधरों पर हँसी
भी रोयेंगे
सब खोयेंगे
जान कर भी
ये सारा कलह
फिर आयी सुबह!