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कलम करना क्षमा / जनार्दन राय

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कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।
हजारों भाव हैं मन में,
किसी से कह नहीं सकता।

किया था पाप जो मैंने,
कभी फल भोगता उसका।
दिया था कष्ट जो मैं,
भोगता हूँ कष्ट अब उसका।
विवश हूँ क्या करूँ बनकर,
पराश्रित श्रम नहीं करता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

सबों के साथ भी रहकर,
है लगता अलग हूँ रहता।
जगत को देखता रहता,
जगत से कुछ नहीं कहता।
नियम-संयम सभी खोकर,
न पूजा पाठ कर सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

पढ़ सकता मगर पढ़ने की,
सुविधा मिल नहीं पाती।
उलटना पृष्ठ भी संभव,
नहीं है हो सदा सकता।
बड़ा लाचार हूँ जो ग्रन्थ,
मुझसे उठ नहीं पाता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

न कोई दिन गुजरता था,
बिना कर में तुझे लेकर।
नहीं संतोष पाता था,
बिना कुछ भी कभी लिखकर।
अभी तो चैन से बिल्कुल नहीं,
है दिन गुजर सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

हैं रातें तो वही होती,
अधिक लम्बी मगर लगती।
न जल्दी बीत पाती है,
नहीं है आँख ही लगती।
नहीं हूँ चैन से सोता,
नहीं करवट बदल सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

जहाँ था काम कर लेता,
सदा निज हाथ से अपना।
वहां कुछ भी नहीं करता,
सभी अब हो गये सपना।
यही हूँ सीख बस लेता,
कि अपना चल नहीं सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

न सोचा था कभी आयेगा,
ऐसा दिन भी जीवन में।
बनूँगा भार औरों का,
रहूँगा सोचता मन में।
बड़ा लाचार हूँ कुछ,
चाहकर भी कर नहीं सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

धनी था कल्पना का,
भावना का, कामना का भी।
मनाना जानता था वन्दना,
कर अर्चना कर भी।
नहीं है गीत बन सकता,
नहीं है प्रेम पल सकता।
कलम करना क्षमा मुझको,
कि तुमको छू नहीं सकता।

-डूमरिया खुर्द,
26.1.1985