कलम की यात्रा / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
थक गई कलम,
शब्द अर्थहीन हो गए,
सूख गई स्याही,
रचनाएं भी अब निष्प्रभावी हो गईं।
हो गया क्या यह सब?
क्यों हो गया यह सब?
समय की गति के आगे,
हर मंजर संज्ञा-शून्य हो गया है अब।
याद आता है अभी भी
इस भूलने वाली अवस्था में,
जब थाम कर हाथों में कलम,
पहली बार रची थी कुछ पंक्तियाँ,
सजाई थी कागज पर एक कविता।
बाल मन, बाल सुलभ उड़ान को
मिल गए थे कल्पनाओं के पर,
कभी सूरज, कभी चन्दा
उतर रहे थे आसमान से जमीं पर।
कभी तोता, मैना सजते,
कभी उड़ती थीं रंगीन तितलियाँ
कागज के जंगल पर।
कभी सरदी, कभी गरमी
तो कभी बारिश की रिमझिम होती रहती,
ऊंचे पहाडों, हरे-भरे मैदानों में दौड़ते रहते,
उड़ते रहते हम
सपनों में आती परियों के साथ
और यूँ ही
बाल मन की कल्पनाएँ सजती रहतीं।
समय उड़ता रहा,
वक्त गुजरता रहा,
परियों, तितलियों, तोता, मैना का संग
कहीं पीछे छूट गया।
यौवन कलम पर चढ़ा,
जवानी रचनाओं ने भी पाई,
युवा मन ने अपनी रचनाओं को
नवयौवना की चुनरी ओढाई।
मौसम, गगन विशाल,
वो रिमझिम बरसात,
जवाँ हो गया हर शमां,
जवाँ हो गए हर जज्बात।
शब्दों का बचपना
अब हँसी रूप धर रहा था,
रच रहा था
नारी के सुकोमल अंगों की नई परिभाषाएं,
सजा रहा था
श्रृंगार रस में पगी कवितायें।
सलोने मुखड़े की सादगी का दीवानापन,
सावन के झूले, बारिश में भीगे तन-मन।
कभी रात की तन्हाई,
कभी दो पल का मिलन।
झील सी आँखें, घनेरी जुल्फें,
छनकती पायल,
खनकती चूडियाँ,
हांथों की मेंहदी,
माथे की बिंदिया को सजाता, संवारता रहा।
लेकिन वक्त ने फ़िर करवट बदली,
कलम ने फ़िर
उम्र की दूसरी राह पकडी।
बिता कर एक अल्हड जोशीली दुनिया,
परिपक्वता के सागर में समा रही थी,
नवयौवना के हाव-भाव,
अंगों-प्रत्यंगों पर
हजार-हजार बार चली कलम
अपनी सार्थकता दर्शा रही थी।
अब रचनाओं में भविष्य के सपने नहीं,
किसी हसीन ख्वाब की तस्वीर नहीं,
मन का गुबार झलकता था,
अव्यवस्थित हो रहे ढांचे के प्रति
रोष झलकता था।
गरीबी, भूख, बेकारी, दंगे
और भी न जाने कितनी समस्याओं को
कविता की लड़ियों में पिरोया था,
अपने आसपास की प्रदूषित हवा को
शुद्ध करना चाहा था।
अब बुरा लगता था
यूँ नवयुवक-युवतियों का
बेबाक होकर चलना,
बांहों में बाँहें डाले गलियों में घूमना.
नहीं भाता था अब
समाज का चलन,
नहीं रास आती थी अब जीने की कला।
सुबह से शाम तक भटकना,
मशीन बने रहना और फ़िर
अगली सुबह से
वही क्रिया-कर्म दोहराना।
युवावस्था की आग जो विचरती थी
स्वप्लिन दुनिया में
उसे अब हकीकत की जमीं पर लाया जा रहा था।
सैकड़ों रचनाएँ, हजारों पन्ने रंग गए,
आज की अव्यवस्था पर सज गए
पर कुछ भी न बदल सका,
नहीं बदल सका
मानव का मशीन बनना,
नहीं रुक सका जुल्म
गरीबों पर अमीरों का,
सरकारें वैसे ही खामोश सोती रहीं,
नव-वधुएँ तड़प-तड़प कर
आग में खोती रहीं।
मिटती रही हमेशा की तरह अजन्मी बिटिया,
बढ़ती रही और भी
लोगों की अतृप्त लालसा।
कुछ भी तो नहीं बदल सका मैं,
समाज की बुराइयों, गंदगी को
मिटा न सका मैं।
समझ रहा था
कितना आसान है यूँ
शब्द क्रांति के सहारे दुनिया बदलना,
कितना सरल होगा इस तरह
लोगों को प्रेम-स्नेह में ढालना।
मिट सकेगी कविताओं, रचनाओं के सहारे
लोगों की भूख-प्यास,
नंगे बदन को ढंकने और
अपने घर की आस।
पर यह एक भूल थी,
कुछ भी तो नहीं बदला जा सकता
मात्र कुछ शब्दों के सहारे,
मन का बहलाव,
दिल की भडास को ही
मिटाया जा सकता है इसके सहारे।
फ़िर क्यों रंगे जा रहा हूँ मैं
कागज़ पर कागज़?
क्यों नहीं समझ पा रहा हूँ
आज वक्त की नजाकत?
आह! अब सोचता हूँ
उस नन्हीं सी,
बचपन की कलम के बारे में,
जो रचा करती थी सुनहरा संसार,
चारों ओर बस प्यार ही प्यार।
फ़िर वैसी ही कलम,
वही जादुई शब्दों की जरूरत है,
वही चाहत, वैसी कल्पना की जरूरत है।
इस परिपक्व कलम ने
बस लोगों का रोना ही रचा है,
दुःख व करुणा को ही लिखा है,
बिला-वजह के शब्द जाल को बुना है।
रोने-हंसने-जीने-मरने,
एक-एक पल का हिसाब रखा है।
लोगों के सीने में दफ़न दर्द को
उकेर कर कागजों पर रंगे
वो कलम नहीं चाहिए,
निरर्थक, नाकाम शब्दों को
मात्र रचती रहे
वो कलम नहीं चाहिए।
शायद यही जिन्दगी की थकान,
टूटन की पहचान है,
लगता है अब इस कलम का
यही आखिरी पड़ाव है,
या कहें कि
अब इस कलम का,
इस जिन्दगी का यही ठहराव है।