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कलम / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
बड़ी मुद्दत के बाद आज फिर उठी है कलम,
और सूखी थी सियाही जो, मुस्कुराई है!
मगर है फिर भी बेबसी ऎसी…
वो सभी कुछ जो कहना चाहा सदा,
आज कागज़ पे उतारूँ कैसे?
ख़याल उड़ रहे हैं दूर बादलों में कहीं,
टिके हुए हैं मगर अश्क तो वहीं के वहीं,
पलक झुकाऊँ तो,
इनको भी खो न जाऊँ कहीं...
अब इस कलम को टिकाना होगा,
सुनहरे ख़्वाब भुलाना होगा,
एक अर्से से जो हैं जाग रहीं,
अब इन आँखों को सुलाना होगा!