कलाम! सलाम / राजीव रंजन प्रसाद
राजनीति की विवशता थी
कि पश्चिम से सूरज उगा
एसा देदीप्यमान
कि संसद की चिमनी से उठता
कसैला धुवां ढक न सका अंबर
गर्व से बच्चा-बूढा, नर-नारी, खास-आम
जो आम रास्ता नहीं था
उसके भीतर के अपने को
अपना कहते न अघाते थे
यह जर्जर-बूढा देश, सांस लेने लगा था
जब पहला नागरिक, वह व्यक्ति हुआ था
जिसमें इतनी उर्जा थी
जो किसी परमाणु अस्त्र में क्या होती?
इतनी नम्रता थी
कि फल के बोझ से लदी डाल भी शरमाये
इतनी सोच कि जैसे
शारदा की वीणा का एक तार वह स्वयं हो
इतना ममत्व
कि किसी की माँ, तो चाचा किसी का
और लगन इतनी
कि सातों आसमान छू कर भी
किताब हाँथों से छूटती ही नहीं...
कलाम एक दर्शन है
कि काजल की कोठरी में
उजला कबूतर...
राजनीति के आँकडे
शकुनी के पासे हो गये
कुर्सी और कीचड
ये बेमौसम की होली थी
लेकिन तुम तो मुस्कुराते रहे
तुम्हारे मस्तक पर रोली थी
विदा कलाम!!!
एक कुर्सी, एक पद, केवल इतना ही
लेकिन कोटि कोटि हृदय में सर्वदा-सर्वदा
आपकी ही प्राथमिकता
अमिट आपकी जिजीविषा, आपका मार्ग
अमिट आपका नाम
कलाम! सलाम!!!
23.07.2007