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कला / महेन्द्र भटनागर

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जो सुदूर स्वप्न-राज्य की विहारिका
व्योम पार देश की रही निहारिका
कर्म-मार्ग हीन, स्वर्ण-विश्व साधिका
द्वन्द्व से विमुख, सदा नवीन बाधिका
हेय व्यर्थ युग-उपेक्षिता अमर कला !

धूल से विलग विचार वास्तविक नहीं
झूठ शब्द-जाल चित्र-मात्र है वही
जो मनुष्य भाव-राग से जुड़ा न हो
दर्द-हास तार से सहज बुना न हो
कब समाज में टिका ? कहाँ अरे चला ?

व्यक्त सिर्फ़ आज के सवाल चाहिए
तम नहीं प्रभात लाल-लाल चाहिए
व्यक्ति की करुण कराह है उतारनी
आग जो दबी उसे पुनः उभारनी
सब कुरीतियाँ मिटें, प्रहार ज़लज़ला !

भावना निराश ना मृतक समान हो
अश्रु औ’ रुदन नहीं, न मोह गान हो,
आज जीर्ण देह तोड़ता मजूर हैµ
पर, समानता समय बहुत न दूर है,
कवि मुखर करो ! य’ किसलिये कला भला ?