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कल्पा-सांगला को याद करते हुए / कुमार कृष्ण

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इस बार ले आये हम कल्पा<ref>हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले का आदिवासी क्षेत्र</ref> से अपने साथ-
किन्नर-कैलाश की आस्थाएँ
पार्वती-पर्वत की पिघलती हुई तकलीफ़
सांगला<ref>हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले का आदिवासी क्षेत्र</ref> के, छितकुल<ref>हिन्दुस्तान का अन्तिम गाँव</ref> के नंगे पहाड़ों से
मनुष्यता की गन्ध
सतलुज की, बसपा<ref>तिब्बत से आने वाली एक नदी जो छितकुल नामक स्थान पर भारत में प्रवेश करती है</ref> की कराहती हुई पुकार

ठीक ही कहा था तुमने मुक्तिबोध-
'पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी हमको
नीली झील की लहरीली थाहें
जिसमे प्रतिपल काँपता रहता अरुण कमल एक'

सांगला की धरती पर-
कहाँ से, कैसे पहुँचा होगा मनुष्य पहली बार
सोचता हूँ बार-बार
सांगला के घर हैं मनुष्यता के-
ख़ूबसूरत, दुर्लभ अजायबघर
जहाँ खाते हैं आज भी लोग-
नंगे जौ के सत्तू

पीते हैं चुरू<ref>याक की तरह लम्बे बालों वाली आदिवासी गाय</ref> का दूध
गाते हैं ज़िन्दगी का गीत
वे नहीं जानते-

शहरी हाट में किस दाम से
बिक रहे हैं तमाम आदिवासी फल
फूट रहे हैं सांगला की ज़मीन पर
किन्नौरी मटर के अंकुर बेशुमार

वाशिंगटन का संगोष्ठी-कक्ष कर रहा चर्चा-
होरी-धनिया की बिरादरी पर
छेरिंग दोरजे उठा रहा कमरूनाग<ref>सांगला का लोक देवता</ref> की पालकी

एक गाँव से दूसरे गाँव तक।

शब्दार्थ
<references/>