भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल अचानक ज़िन्दगी / तेजेन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्दगी आई जो कल मेरी गली
बंद किस्मत की खिली जैसे कली

ज़िन्दगी तेरे बिना कैसे जियूं
समझेगी क्या तू इसे ऐ मनचली

देखते ही तुझको था कुछ यूं लगा
मच गई थी दिल में जैसे खलबली

मैं रहूं करता तुम्हारा इन्तज़ार
तुम हो बस, मैं ये चली और वो चली

तुमने चेहरे से हटायी ज़ुल्फ़ जब
जगमगाई घर की अंधियारी गली

छोड़ने की बात मत करना कभी
मानता हूं तुम को मैं अपना वली

चेहरा यूं आग़ोश में तेरे छिपा
मौत सोचे वो गई कैसे छली