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कल तक थी जो आमादा-ए-ईसार निगाहें / ईश्वरदत्त अंजुम
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कल तक थी जो आमादा-ए-ईसार निगाहें
शर्मिंदा हैं क्यों आज वो ग़म ख़्वार निगाहें
मजबूर है कि आज वो खुद्दार निगाहें
जो कर न सकी प्यार का इज़हार निगाहें
झुकती ही चली जाती है क्यों बारे-हया से
देती नहीं क्यों दावते-दीदार निगाहें
आइने- दिल में जो किया अपना नज़ारा
मायूस से चेहरा था तो बीमार निगाहें
करते हैं निगाहों ही निगाहों में जो हम बात
देती है हमें मात वो हुशियार निगाहें
पूछी है निगाहों ने निगाहों से कोई बात
इकरार करे या करे इंकार निगाहें
सरमस्त बना देती है माहौल को यकसर
उठ जाती है जिस सम्त हो मयख़्वार निगाहें
अंजुम जो लुटाती थी कभी फूल हंसी के
क्यों आज है अफसुर्दा वो गुलबार निगाहें।