कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ,
सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?
अंग्रेज़ी से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी