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- कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !
 
 
- सूनी कुटिया थी मेरी सूना था नभ का आँगन,
 
- केवल जगता था मैं, या जगता विधु का भावुक मन ; 
 
- प्रतिपल बढ़ती थीं ज्यों ही  जिसकी किरणें बाहें बन,
 
- बढ़ती जाती थी रह-रह जाग्रत अन्तर की धड़कन ; 
 - ना मद से बोझिल ये अँखियाँ अलसायीं !
 
 
 
- स्वयं निकल कर स्वप्न-कथा की बढ़ती थीं घटनाएँ,
 
- उड़ जाती थीं शैया पर नव-परिमल-अन्ध-हवाएँ,
 
- लहर-लहर कर अँगड़ा कर जागीं सुप्त भावनाएँ,
 
- निशि भर पड़ी रहीं चुपचुप मन को अपने बहलाए,
 - उन्मादी-सी बन न क्षणिक भी शरमायीं !
 
 
 
- बिखर कभी कच वक्षस्थल पर उड़-उड़ लहराते थे,
 
- या कि कभी सज-गुँथ कर दो वेणी लट बन जाते थे,
 
- कमल-वृंत पर कभी भ्रमर  अस्फुट राग सुनाते थे,
 
- कोमल पत्ते बार-बार फूलों को सहलाते थे,
 - बनती मिटती रही अजानी परछाईं !
 
- सच, कल रात ज़रा भी नींद नहीं आयी !