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कल / अज्ञेय
Kavita Kosh से
ये ढूह इधर को थे
ये बच्चे खेल रहे थे वहाँ
ये बकरियाँ उधर दूर
न जाने क्या सूँघ रही थीं बालू में-
और वहाँ आगे मेंगनी से बनी लीक के अन्त में-
वह चितकबरा छौना
गर्दन मोड़ कर उछला था
अचरज से भरा कि कैसे
उस की एक ही कुलाँच में
सारा सैरा यों बदल गया!
क्या मरुथल ने भी कुलाँच भरी?
मरु-मारुत से पूछें?-जिस की साँस का जादू
सब इधर-उधर रह गया-
हमारी आँखों में धूल झोंक कर?
पर कहाँ गये वे झोंपड़े
वे काँटों के बाड़े भी कहाँ गये?
बीत गयी है आँधी
उमसाया सन्नाटा
सारे मरु पर छाया है।
अब किस से क्या पूछें?