भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता-तीन / विनोद स्वामी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गळी री नाळी में
तिरतो बगै
एक तिणकलो।

वीं माथै
अबार ई
एक मकोड़ो
आंटी लगा’र चढ्यो है
अर सकून साथै
हाथां सूं पूंछ्यो है मूं।

हाल
जीवण-मरण रो
जुध होयो है अठै
जकै में
जीवण जीत्यो है।
 
म्हनैं लाग्यो
गळी री नाळी में
तिरती बगै एक
सांवठी कविता।