कविता-9 / शैल कुमारी

बबूल का पेड़
मैंने तो नहीं रोपा था
तुमने भी नहीं रोपा
फिर काँटे कहाँ से उग आए

चीज़ें इस क़दर बिगड़ती रही हैं चारों ओर
कि ग़लती कहाँ पर है
उँगली रखकर बताना
बहुत मुश्किल हो गया है
सड़क धुली हुई है

लगता है रात में बारिश हुई थी
पर मन को धो-पोंछ कर कैसे निखारा जाए
जहाँ अनगिन साए
सब कुछ बदरंग बना जाते हैं
एक छोटी-सी, काग़ज़ की नाव ही सही

बच्चे के लिए बहुत है, यह सोचने को
कि मैं दरिया पार कर लूँगा;
शर्त इतनी ही है
दरिया, दरिया ही रहे
काँटों का बीहड़ जंगल न बन जाए।

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