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कविता एक चाकू है / नंदकिशोर आचार्य

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दर्पण नहीं है वह
जब चाहा देख लिया
अपना चेहरा जा कर

फूल भी नहीं वह कोई
रँगो-बू में जिस की
डूबे ही रहो दिन-रात

कोई खिलौना भी नहीं
चाबी भरते ही चलने लगे
मन बहलाने की ख़ातिर

कविता एक चाकू है
गहरे तक धँसा
              आत्मा में—
न मुमकिन रख पाना
                   जिस को
निकालना
मर जाना निश्चय ।

20 अप्रैल 2009