कविता कनेक्शन : रिफ़्यूजी कैम्प / यशोधरा रायचौधरी / मीता दास
गर्दन के ऊपर मैंने किसी तरह अपना सर टिका रक्खा है
धड़ के ऊपर मैंने किसी तरह सुराहीदार पतली गर्दन टिका रक्खी है
ज्यादा टेढ़ी नहीं की, वर्ना गर्दन सहज ही टूट गई होती
दब गई मोच आ गई : कितना कष्ट सहा पर नहीं टूटी
चाय की दुकान पर जैसे, हिलने-डुलने वाला बाँस की मचान
कितने कष्ट से धूप में जलकर भी
पैबन्द सा लगा रक्खा है कैम्बिश पर
छावनी से उस छावनी तक मग हाथों में लिए
घूम आया झुँझलाया सा फेरी वाले की तरह
कह चुका हूँ सारे क़िस्से पैबन्द लगे
छेदयुक्त आदि-अन्तहीन
रिफ़्यूजी कैम्प के पास घूम-घूमकर
काँच बटोरे हैं
लाल काँच, नीला काँच, मनुष्यों के आँसुओं से भीगा काँच
लंगर खाने के नज़दीक से बीनी है प्रसादी खिचड़ी
मनुष्य के, पशुओं के, शिशुओं के खाने के ढेले
वह सब खाते-खाते भूख को बाहर धकेला है
अब पेट के भीतर चोट करती है सब की भूख,
अब पैरों के बीच रहता है बहुतों का आना-जाना
अब माथे के भीतर भों-भों करता धीमा-भारी स्वर
अब कविता होगी । पुराने कपड़ों की भाँति पड़ा रहेगा सभी तरह का छल-चातुर्य।
मूल बांगला से अनुवाद : मीता दास