कविता में कुविचार -२ / प्रेमचन्द गांधी
बर्फ-सी रातों में
ज़र्द पत्तों की तरह झड़ते हैं विचार
अंकुरित होते हैं कुविचार
जैसे पत्नी, प्रेमिका, मित्र या वेश्या की देह से लिपटकर
जाड़े की ठण्डी रातों में
खिलते हैं वासनाओं के फूल
जीवन में सब कुछ
पवित्र ही तो नहीं होता इवान बूनिन
अनुचित और नापाक भी घटता है
जैसे जतन से बोई गई फसलों के बीच
उग आती है खरपतवार
मनुष्य के उच्चतम आदर्शों के बीचोंबीच
कुविचार के ऐसे नन्हें पौधे
सहज जिज्ञासाओं के हरे स्वप्न
जैसे कण्डोम और सैनिटरी नैपकिन के बारे में
बच्चों की तीव्र उत्कण्ठाएं
ब्रह्मचारी के स्वप्नों में
आती होंगी कौन-सी स्त्रियां
साध्वी के स्वप्नों में
कौन-से देवता रमण करते हैं
कितने बरस तक स्वप्नदोष से पीडि़त रहते होंगे
ब्रह्मचर्य धारण करने वाले
कामेच्छा का दमन करने वालों के पास
कितने बड़े होते हैं कुण्ठाओं के बांध
जिस दिन टूटता होगा कोई बांध
कितने स्त्री-पुरुष बह जाते होंगे
वासना के सैलाब में
कुण्ठा, अपमान, असफलता और हताशा के मारे
उन लोगों की जिंदगियों को ठीक से पढ़ो
कितने विकल्पों के बारे में सोचा होगा
खुदकुशी करने से पहले उन्होंने
जिंदगी इसीलिए विचारों से कहीं ज्यादा
कुविचारों से तय होती है इवान बूनिन
मनुष्य को भ्रष्ट करते हैं
झूठे आदर्शों से भरे उच्च नकली विचार
इक ज़रा-सी बेईमानी का कुविचार
बच्चों की फीस, मां की दवा, पिता की आंख
और बीवी की नई साड़ी का सवाल हल कर देता है
कुछ जायकेदार कहीं पकने की गंध
जैसे किसी के भी मुंह में ला देती है पानी
कोई ह्रदय विदारक दृश्य या विवरण
जैसे भर देता है आंखों में पानी
विचारों की तरह ही
आ धमकते हैं कुविचार.