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कविता / मोहन आलोक
Kavita Kosh से
कविता कोई पत्थर नहीं है
कि आप मारें
और सामने वाला हाथ ऊंचे कर दे
साफा उतारे
और आप के पैरों में
रख दे ।
कविता का असर
तन पर नहीं
मन पर होता है
मन की जंग लगी तलवार को
यह
पानी दे-दे कर धार देती है
उसे धो-पोंछ कर
नए संस्कार देती है
यह वक्त के घोड़ों को लगाम
और सवारों के लिए
काठी का बंदोबस्त करती है
यह हथेली पर
सरसों नहीं उगाती
बल्कि उसे उगाने के लिए
जमीन का बंदोबस्त करती है ।
अनुवाद : नीरज दइया