भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता / मोहन आलोक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता कोई पत्थर नहीं है
कि आप मारें
और सामने वाला हाथ ऊंचे कर दे
साफा उतारे
और आप के पैरों में
रख दे ।

कविता का असर
तन पर नहीं
मन पर होता है
मन की जंग लगी तलवार को
यह
पानी दे-दे कर धार देती है
उसे धो-पोंछ कर
नए संस्कार देती है

यह वक्त के घोड़ों को लगाम
और सवारों के लिए
काठी का बंदोबस्त करती है
यह हथेली पर
सरसों नहीं उगाती
बल्कि उसे उगाने के लिए
जमीन का बंदोबस्त करती है ।

अनुवाद : नीरज दइया