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कवि, पत्नी और प्रेम की कविता / भास्करानन्द झा भास्कर

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कभी देखा हैं आपने
गौर से
कवि की पत्नी को
पढते हुये
उसकी कविता
विशुद्ध प्रेम की?
कभी आपने
पढा है--
उसके चेहरे पर
बनते बिगडते
विविध भाव भंगिमा?
कभी खुश होती
खुद में
मंत्रमुग्ध होकर
कवि के समक्ष,
कुछ क्षण बाद ही
मगर...
उसके भीतर
उठ जाती है झट से
एक बेचैनी,
शक्क,
निरा वहम!
उसके मन में
कौंधते है बहुत कुछ
और वो
नोचने लगती
अपने बालों को यूं
जैसे नोच रही हो
क्रुद्ध कुपित होकर
अपने कवि
प्रिय पति सर के
बिखड़े उजले बाल!