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कवि के प्रति कवि / अज्ञेय
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कवि के प्रति कवि
दर्प किया : शक्ति नहीं मिली।
सुख लिया-छीन-छीन कर भर-भर सुख लिया :
अभिव्यक्ति नहीं मिली।
दु:ख दिया, दु:ख पिया, दु:ख जिया : मुक्ति नहीं मिली।
कुछ लिखा : वह हाट-हाट बिका
फूले हम, सफल हुए : मोह पर झरा नहीं, टँगा-सा रहा टिका
हृदय की कली नहीं खिली।
बँधते हम रूप के दाम में रहे,
स्रजते पर सृष्टि से चिपटते,
आलोक-प्रभव पर लय की लहर से लिपटते
रमते हम काम में, राम में, नाम में रहे :
अनासक्ति नहीं मिली।
नम: कवि, जो भी तुम नाम ही नाम छोड़ गये;
जो जब-जब हम शास्त्र रच मुदित हुए
संचित हमारा अहंकार स्मित-भर से तोड़ गये;
मरु की ओर अदृश्य बढ़ी अन्त:सलिला को
सहज, कुछ कहे बिन फिर भीतर को मोड़ गये।
दिल्ली, 15 मई, 1956