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कवींद्र रवींद्र / रामगोपाल 'रुद्र'

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तब आए थे तुम, हे उदार!

जब तुहिन घना था अम्बर में,
भय का था चोर घुसा घर में,
दिग्‍भ्रम के दृग सकुचे सर में;
जग-जगड्‍वाल शैवाल-शोक के ओक उजागर करने को
नयनों की जाली हरने को
तुम आए थे, हे ऋषि उदार!

दिंङ्‍मूढ़ विकल थे कोक दुखी,
भ्रमगीत मलिनमुख भानुमुखी;
तम और तिमिर के पंख सुखी
तब, पूर्व-प्रभा से पंकज में नववैभव के स्वर भरने को
पंकज को शतदल करने को
तुम आए थे, हे रवि उदार!


आलोक-क्रान्‍त के हे द्रष्‍टा,
सद्धर्म-क्रान्‍ति के हे स्रष्‍टा,
सांस्कृतिक सौध के हे त्वष्‍टा,
गोप्पद को गंगा बना, अमरता को चरणों से तरने को
धूलों में सौरभ भरने को
तुम आए थे, हे कवि उदार!