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कशिश तो अब भी गज़ब की है नाज़नीनों में / निश्तर ख़ानक़ाही

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कशिश तो अब भी गज़ब की है नाज़नीनों में
मगर वो चाँद चमकता नहीं जबीनों में

ये सब के चेहरों में यह-सानियत सी कैसी है
हसीन-तर कोई जचता नहीं हसीनों में

जो मेरे जे़हन में थी सब्ज़ा-ज़ार ख़्वाब में थी
कहाँ वो फ़स्ल उगाई गई ज़मीनों में

शुऊर-ए-उम्र से अफ़जूँ हुई है उम्र-ए-शुऊर
हमारे साल गुज़रने लगे महीनों में

ज़बान से रोज़ मैं ताईद-ए-इज़्न करता हूँ
छुपे हैं बुत भी मगर मेरी आस्तीनों में

नुमाइशें न फ़ुरूई तकल्लुफ़ात यहाँ
कहाँ तुम आ गए हम बोरिया-नशीनों में

ब-जु़ज तुम्हारे नहीं कोई ख़ानक़ाही अब
मैं किस का नाम लिखूँ अपने नुक़्ता-चीनों में