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कसक / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
Kavita Kosh से
मैं मानता हूँ
तुम एक दरिया हो
अपने सीने में दर्द का गुबार
छुपाकर, बह तो सकती हो
कहीं भी, किसी भी तरफ
कभी विशाल चट्टानों को फाड़कर
कभी बागों के बीच से भी
लेकिन अंत में
तुम मिलोगी अपने प्यार के साथ
सागर है तुम्हारे इन्तजार में
जहाँ वह तुम्हारे एक-एक आँसुओं को
अपनी पलकों पर सजा लेगा
मोती की तरह
पर मेरा क्या?
मैं क्या करूँ
कहाँ बहूँ, कहाँ ले जाऊँ मेरी पीड़ा
मेरे दर्दों की टीस
किसे जाकर कहूँ?
चारो तरफ दीवारों से घिरा जो हूँ
मेरे लिए ये आसान न होगा
दर्द को पिघलाकर
उड़ेल दूँ अपनी पीड़ा को
मेरे लिए, कोई सागर भी तो नहीं
क्योंकि मैं तुम्हारी तरह
दरिया तो नहीं
दर्द का तालाब हूँ।