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कसीदा इंक़लाबी के लिए / बैर्तोल्त ब्रेष्त / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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बहुतेरे बहुत अधिक हुआ करते हैं
वे ग़ायब हो जाएँ, बेहतर होगा ।
लेकिन वह ग़ायब हो जएय, तो उसकी कमी खलती है ।

वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मजूरी, चाय-पानी
और राज्यसत्ता की ख़ातिर ।
वह पूछता है सम्पत्ति से :
कहाँ से आई तुम ?
वह पूछता है विचारों से :
किसके फ़ायदे में हो तुम ?

जहाँ भी ख़ामोशी हो
वह बोलेगा
और जहां शोषण का राज हो और क़िस्मत की बात की जाती हो
वह उँगली उठाएगा ।

जहाँ वह मेज़ पर बैठता है
छा जाता है असन्तोष उस मेज़ पर
जायका बिगड़ जाता है
और कमरा तंग लगने लगता है ।

उसे जहाँ भी भगाया जाता है,
विद्रोह साथ जाता है और जहाँ से उसे भगाया जाता है
असन्तोष रह जाता है ।

रचनाकाल : 1930-31

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य