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कसीदा द्वन्द्ववाद के लिए / बैर्तोल्त ब्रेष्त / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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बढ़ती जाती है नाइंसाफ़ी आज सधे क़दमों के साथ ।
ज़ालिमों की तैयारी है दस हज़ार साल की ।
हिंसा ढाढ़स देती है : जैसा है, रहेगा वैसा ही ।
सिवाय हुक़्मरानों के किसी की आवाज़ नहीं
और बाज़ार में लूट की चीख़ : शुरुआत तो अब होनी है ।
पर लूटे जाने वालों में से बहुतेरे कहने लगे हैं
जो हम चाहते हैं, वो कभी होना नहीं ।

गर ज़िन्दा हो अब तलक, कहो मत : कभी नहीं ।
जो तय लगता है, वो तय नहीं है ।
जैसा है, वैसा नहीं रहेगा ।
जब हुक़्मरान बोल चुके होंगे
बारी आएगी हुक़्म निभानेवालों की ।
किसकी हिम्मत है कहने की : कभी नहीं ?
ज़िम्मेदार कौन है, अगर लूट जारी है ? हम ख़ुद ।
किसकी ज़िम्मेदारी है कि वो ख़त्म हो ? ख़ुद हमारी ।
जिसे कुचला गया, उसे उठ खड़े होना है ।
जो हारा, उसे लड़ते रहना है ।
अपनी हालत जिसने पहचानी, रोकेगा कौन उसे ?
फिर आज जो पस्त हैं कल होगी उनकी जीत
और कभी नहीं के बदले गूँजेगा : आज अभी ।

रचनाकाल : 1933

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य