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कहते "जब सजनि! सजल घन में छिपती-दुरती रजनीश-कला। / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते ”जब सजनि! सजल घन में छिपती-दुरती रजनीश-कला।
तव सस्मित मुख से रस-रंजित उल्लास हास जब-जब निकला।
तुम सुमुखि ! झीन अंचल-तल में जब लिये अचंचल दीप खड़ी।
झाँकता कलित-कौमार्य-कुसुम रस-निर्झर की निर्बाध झड़ी।
जब कहता प्रचुर प्रेम-संदेशा विद्युत-विलसित जलद चपल।
उठता वासना-विलास-दीप्त उद्दाम कामना-कोलाहल।“
रोमांचक स्मृति में व्यथित प्राण बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥59॥