भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहते थे, “सुन्दरि! गंधानिल-तव अंचल-कोर कुसुम्बी ले / प्रेम नारायण 'पंकिल'
Kavita Kosh से
कहते थे, “सुन्दरि! गंधानिल-तव अंचल-कोर कुसुम्बी ले ।
जननी-उरस्थ चंचल बालक-सा दुलराता कपोल पीले ।
तुम अलस-वलित-मुकुलित सरोज-दृग किये नमित खुरचती धरा।
नव पल्लव-दल-मृदु-पद-सित-नख की नूपुर-रव-रंजिता त्वरा।
अब त्यागो मान प्राण! हॅंस देंगे निर्मोही जलजात प्रिये।
कब सज पायी है सुमुखि! बिना दूल्हे की भी बारात प्रिये!”
आ जा हे राधावर! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥124॥