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कहन लेखनी से सँवारा नहीं / प्रेमलता त्रिपाठी
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कहन लेखनी से सँवारा नहीं।
रहूँ भारती का दुलारा नहीं।
रहे सारथी बन कलम यह सदा,
हृदय कवि कभी मीत हारा नहीं।
नहीं रिक्त हों भाव सागर तथा,
कभी टूटती प्रीति धारा नहीं।
लगन है सर्जन की विरल साधना,
दिशा कौन जिसने पुकारा नहीं।
किरण रवि न पहुँचे जहाँ तक वहाँ,
पहुँच कवि न हो वह किनारा नहीं।
खिले पुष्प क्यारी सरस वाटिका,
बहे प्रेम रस मन बिचारा नहीं।