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कहाँ जा रहा है तू ऐ जाने वाले / शैलेन्द्र
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कहाँ जा रहा है तू ऐ जाने वाले
अँधेरा है मन का दिया तो जला ले
कहाँ जा रहा है ...
ये जीवन सफ़र एक अंधा सफ़र है
बहकना है मुमकिन भटकने का डर है
सम्भलता नहीं दिल किसी के सम्भाले
कहाँ जा रहा है ...
जो ठोकर न खाए नहीं जीत उसकी
जो गिर के सम्भल जाए है जीत उसकी
निशां मंज़िलों के ये पैरों के छाले
कहाँ जा रहा है ...
कभी ये भी सोचा कि मंज़िल कहाँ है
बड़े से जहां में तेरा घर कहाँ है
जो बाँधे थे बंधन वो क्यों तोड़ डाले
कहाँ जा रहा है ...