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कहाँ तलाश करूँ अब उफ़क़ कहानी का / मनचंदा बानी

कहाँ तलाश करूँ अब उफ़क़<ref>क्षितिज</ref> कहानी का ।
नज़र के सामने मंज़र<ref>दृश्य, नज़ारा</ref> है बेकरानी <ref>असीम, अपार</ref>का ।

नदी के दोनों तरफ़ सारी कश्तियाँ गुम थीं
बहोत ही तेज़ था अब के नशा रवानी का ।

मैं क्यूँ न डूबते मंज़र के साथ डूब ही जाऊँ
ये शाम और समन्दर उदास पानी का ।

परिन्दे पहली उड़ानों के बाद लौट आए
लपक उठा कोई एहसास राएगानी<ref>बेकारी</ref> का ।

मैं डर रहा हूँ हवा में कहीं बिखर न जाए
ये फूल-फूल सा लम्हा तेरि निशानी का ।

वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
मगर मेरे लिए दफ़्तर<ref>रजिस्टर</ref> खुला म‍आनी<ref>अर्थों</ref> का ।

शब्दार्थ
<references/>