कहाँ पहुँचेगा वो कहना ज़रा मुश्किल सा लगता है
मगर उसका सफ़र देखो तो खुद मंज़िल सा लगता है
नहीं सुन पाओगे तुम भी ख़मोशी शोर में उसकी
उसे तनहाई में सुनना भरी महफ़िल सा लगता है
बुझा भी है वो बिखरा भी कई टुकड़ों में तनहा भी
वो सूरत से किसी आशिक़ के टूटे दिल सा लगता है
वो सपना सा है साया सा वो मुझमें मोह माया सा
वो इक दिन छूट जाना है अभी हासिल सा लगता है
कभी बाबू कभी अफ़सर कभी थाने कभी कोरट
वो मुफ़लिस रोज़ सरकारी किसी फ़ाइल सा लगता है
वो बस अपनी ही कहता है किसी की कुछ नहीं सुनता
वो बहसों में कभी जाहिल कभी बुज़दिल सा लगता है
ये लगता है उस इक पल में कि मैं और तू नहीं हैं दो
वो पल जिसमें मुझे माज़ी ही मुस्तक़बिल सा लगता है
न पंछी को दिये दाने न पौधों को दिया पानी
वो ज़िन्दा है नहीं बाहिर से ज़िन्दादिल सा लगता है
उसे तुम ग़ौर से देखोगे तो दिलशाद समझोगे
वो कहने को है इक शाइर मगर नॉविल सा लगता है