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कहा अग़्यार का हक़ में मेरे / अहसनुल्लाह ख़ान 'बयाँ'

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कहा अग़्यार का हक़ में मेरे मंज़ूर मत कीजो
मुझे नज़दीक से अपने कभू तो दूर मत कीजो

हुए संग-ए-जफ़ा से शीशा-ए-दिल के कई टुकड़े
बस अब इस से ज़्यादा और चकनाचूर मत कीजो

मेरे मरहम-गुज़ार उस शोख़-ए-बे-परवा से ये कहियो
कि ज़ालिम ज़ख़्म ताज़ा है उसे नासूर मत कीजो

हिक़ारत अपने आशिक़ की नहीं माशूक़ को भाती
'बयाँ' सई अपनी रुसवाई में ता मक़दूर मत कीजो

कहा था सार-बाँ के कान में लैला ने आहिस्ता
कि मजनूँ की ख़राबी का कहीं मज़कूर मत कीजो