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कहा यह हरिजू! तुमने ठानी / स्वामी सनातनदेव

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राग नारायणी, तीन ताल 27.7.1974

कहा यह हरिजू! तुमने ठानी।
टेरत-टेरत वयस गई, पै तुमने एक न मानी॥
मेरी तो अवलम्ब न दूजो, का तुम स्याम न जानी।
‘असरन-सरन’ कहावत हो तुम, फिर क्यों आनाकानी॥1॥
कहा करों यह हियो न मानत, नतरु होत हित-हानी।
यह निठुरई न सहन होत अब, मनमें होत गलानी॥2॥
त्यागे हूँ कैसे निबहै पै, यहाँ न कोउ गुमानी।
को त्यागे को पकरै प्यारे! तुम हि ध्येय अरु ध्यानी॥3॥
आपुहिं तरस रहे अपुकों-यह कैसी नई कहानी।
या तरसनकों सरसावहु तो आपुनि हो मनमानी॥4॥
खूब कियो यह खेल अनूपम, आपुनि नाहिं निसानी।
पै यह तरसन-सरसन मोहन! आपुहि में हम मानी॥5॥