भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए / हबीब जालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए
तुझे बेवफ़ा कहूँ मैं वो मक़ाम आ न जाए

ज़रा ज़ुल्फ़ को सँभालो मिरा दिल धड़क रहा है
कोई और ताइर-ए-दिल तह-ए-दाम आ न जाए

जिसे सुन के टूट जाए मिरा आरज़ू भरा दिल
तिरी अंजुमन से मुझ को वो पयाम आ न जाए

वो जो मंज़िलों पे ला कर किसी हम-सफ़र को लूटें
उन्हीं रहज़नों में तेरा कहीं नाम आ न जाए

इसी फ़िक्र में हैं ग़लताँ ये निज़ाम-ए-ज़र के बंदे
जो तमाम-ए-ज़िंदगी है वो निज़ाम आ न जाए

ये मह ओ नुजूम हँस लें मिरे आँसुओं पे 'जालिब'
मिरा माहताब जब तक लब-ए-बाम आ न जाए