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कहीं बेख़याल होकर, यूँ ही छू लिया किसी ने / मजरूह सुल्तानपुरी

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कहीं बेख़याल होकर, यूँ ही छू लिया किसी ने
कई ख्वाब देख डाले, यहाँ मेरी बेखुदी ने
कहीं बेख़याल होकर

मेरे दिल मैं कौन है तू, कि हुआ जहाँ अन्धेरा
वहीं सौ दिये जलाये, तेरे रुख़ की चाँदनी ने
कई ख्वाब, कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेखुदी ने
कहीं बेख़याल होकर

कभी उस परी का है कुछ, कभी इस हसीं की महफ़िल
मुझे दरबदर फिराया, मेरे दिल की सादगी ने
कई ख्वाब, कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेखुदी ने
कहीं बेख़याल होकर

है भला सा नाम उसका, मैं अभी से क्या बताऊं
किया बेक़रार हँसकर, मुझे एक आदमी ने
कई ख्वाब, कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेखुदी ने
कहीं बेख़याल होकर

अरे मुझपे नाज़ वालों, ये नयाज़मन्दियां क्यों
है यही करम तुम्हारा, तो मुझे ना दोगे जीने
कई ख्वाब, कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेखुदी ने
कहीं बेखयाल होकर