कही-अनकही / विमलेश शर्मा
सिमटने से बेहतर होता है बिखर जाना!
कुछ शब्द थे ऐसे ही परखे हुए
जो उस अजनबी अपने ने
उस रात, धुँध के धुँधलके में
मेरी पीठ पर रख छोड़े थे
जानती हूँ यह बोलते हुए
उसकी आँखों की कोरों पर मोती जमे होंगे
कोई पुराना दर्द उसके दिल पर दस्तक दे गया होगा
दर्द ठीक वैसा
जैसे कि कोई निठुर प्रेमी समझाइशों की गठरी देकर
अपने घर लौट गया हो!
पर वह लौटना जाते-जाते यह सीख देकर गया कि
बिखर जाना छन से, पर सिमटना नहीं
क्योंकि सिमटना शब्द कम आवृत्ति का है
यह नसों में जम जाता है
और दिमाग़ पर हावी हो कुंद कर देता है
इसी से जाना कि
सीख अनुभव से उपजी दीठ है
दर्द की सखी कोई ढीठ है
दिमाग बुनता रहा, गुनगुनाता रहा
कि प्रेम द्वैत की राह पर नहीं टिकता
पर आसक्ति देर तक ठिठकी रहती है
निरीह, अचल!
लिफ़्टमैन के उस सार्थवाह की तरह
जिसकी जियो दूरवाणी पर किसी चिंतक का
कोई संदेश तैर रहा था कि
" जो है इसी क्षण में है
और जो बीत गया वह मिट्टी है! "
वही रजःकण मरुस्थल बन उस चेहरे पर चित्रित हैं
यह बयाँ करते कि
कुछ निष्ठाएँ उम्र की सरणियों से गुज़र जाने के कारण
अकसर अनाथ हो जाती हैं!
और धर्म, अध्यात्म
महज़ परिभाषाएँ हैं
या फिर...
किसी भुलावे को साकार करने की प्रक्रिया में
दिमाग को, सोच को
धीमा करने की एक क्रिया मात्र!