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क़त्ले-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था / ख़्वाजा मीर दर्द
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क़त्ले-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तेरे अहद के आगे तो ये दस्तूर न था
रात मजलिस में तेरे हुस्न के शोले के हज़ूर
शम्मअ के मुँह पे जो देखा तो कहीं नूर न था
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं जो पहुँचा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था
बावजूद-ए-के परो-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा के फ़रिश्ते का भी मक़दूर न था
मुह्त्सिब आज तो मयख़ाने में तेरे हाथों
दिल न था कोई के शीशे की तरह चूर न था
दर्द के मिलने से ऐ यार बुरा क्यों माना
उसको कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था