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क़ब्रिस्तान से लगे एक खाली घर को देखकर / अजित कुमार

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जहाँ ज़िन्दा लोग होते हों इतने खूँखार
उस दुनिया में
मुर्दों से डरना क्या ।

क़ब्रिस्तान कोई दहशत की जगह नहीं ।

आखिर तो वह है
  एक बड़े भारी क़ब्रिस्तान के भीतर
     एक और छोटा-सा क़ब्रिस्तान-
जहाँ ज़िन्दा कहलानेवाले मरे हुए लोगों से
(बस एक विशेष अर्थ में) कुछ अधिक मरे हुए
                 लोग सोए हैं ।
यह अधिकता मात्रासूचक है, न कि गुणबोधक ।
 क़ब्रें क्या हैं ?
सिर्फ़ छोटे-छोटे घर ,
निहायत उबानेवाले आधुनिक स्थापत्य से
    कहीं ज़्यादा खूबसूरत,
    शानदार और निजी ।

भाग्यशाली हैं वे जो यहाँ चैन से रहते हैं
दर-दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त नहीं ।

नही, ज़ोर से न बोलो,
अभी-अभी उनकी आँख लगी होगी,
इतनी जल्दी मत जगाओ
  उसका भी समय आएगा ।
काश । एक खिड़की—
रसोईघर के अलावा—एक खिड़की
दीवानख़ाने में
और एक सोने के कमरे में भी
खुलती ।

हमारा—उनका साथ
दस्तरख़ान पर ही नहीं,
गुज़रे हुए जमाने के पुरलुत्फ़
जिक्रों में भी होता ।
और
बड़ी रात गये
बिस्तर पर लेटे
हम
देखते ही रहते
बड़े-बड़े चाँद को
मीठी रोशनी से सूनसान को नहलाते ।
ये झाड़-झंखार, झरबेरी;
नागफनी के पीले, नन्हें फूल ;
दरकी, मैली, काली, टूटी-फूटी क़ब्रें;
पगडण्डियाँ । ये कितनी उजली है ।
इन्हें किसने बनाया हैं
और कहाँ जा रही हैं ?
लो
सदियों का गवाह
तमाम लम्बे अतीत का प्रतीक
एक दीप
उस कोने के धुँधलके में
बुझते-बुझते
टिमटिमाने लगा ।
शांति । कितनी शांति ।
सौंदर्य ही सौंदर्य ।
लेकिन यह घर
उफ़ । यह कितना अँधेरा,
कैसा बंद-बंद, उजाड़, मन्हूस है ।
आओ, चलें ।
यहाँ से चलें ।
कौन ? उधर कौन है ?