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क़लम ये हाथ में मैंने न गर लिया होता / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'
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क़लम ये हाथ में मैंने न गर लिया होता
तो अंजुमन में तुम्हारी अदब का कया होता
ख़ुदापरस्तों की मस्ज़िद में बन्दगी के लिए
न होते हम तो कोई दूसरा ख़ुदा होता
ज़माने भर के ग़मों को बसा लिया हमने
न होता दिल ये कहाँ उनका आसरा होता
लबों पे नाम तुम्हारा न भूलकर लाते
तुम्हारे जैसा हमें गर कोई मिला होता
दरख़्त होके मेरे दिल में रह गई हसरत
सफ़र में चार क़दम राह के चला होता