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क़ारूँ उठा के सर पे सुना / ज़फ़र

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क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला
दुनिया से क्या बख़ील ब-जुज़ रंज ले चला.

मिन्नत थी बोसा-ए-लब-ए-शीरीं के दिल मेरा
मुझ को सोए मज़ार-ए-शकर गंज ले चला.

साक़ी सँभालता है तो जल्दी मुझे सँभाल
वर्ना उड़ा के पाँ नशा-ए-बंज ले चला.

दौड़ा के हाथ छाती पे हम उन की यूँ फिरे
जैसे कोई चोर आ के हो नारंज ले चला.

चौसर का लुत्फ़ ये है के जिस वक़्त पो पड़े
हम बर-चहार बोले तो बर-पंज ले चला.

जिस दम ‘ज़फ़र’ ने पढ़ के ग़ज़ल हाथ से रखी
आँखों पे रख हर एक सुख़न-संज ले चला.