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क़िस्मत के नहीं हिकमत के धनी दौलत के नहीं हिम्मत के धनी / कांतिमोहन 'सोज़'

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क़िस्मत के नहीं हिकमत के धनी दौलत के नहीं हिम्मत के धनी
'परिचय इतना इतिहास यही' क़ुदरत के नहीं फ़ितरत के धनी ।

परबत हो कि वीरां हर शय की तस्वीर निखारी है हमने
माशूक़ है ये धरती इसकी हर ज़ुल्फ़ सँवारी है हमने
फूलों को खिलाया काँटों को दामन से निकाला है हमने
आदम के बदन की रग-रग में फ़ौलाद को ढाला है हमने ।
ख़ुद खाद बने गुलशन के लिए
तब जाके कहीं कुछ बात बनी ।।

रातों की सियाही पर अपने लोहू से इबारत की हमने
हर एक बला इस सीने पर लेने में महारत की हमने
मिट्टी में मिले पर मिट्टी को सोने में बदल डाला हमने
ज़हराब पीया जो सदियों तक अमरित में उगल डाला हमने ।
लोहू को बनाया है गारा
तब जाके कहीं कुछ बात बनी ।।

इस बार की बात निराली है इस बार ये ठानी है हमने
सदियों में बनाई जो तुमने दीवार वो ढानी है हमने
अब अपना ज़माना आया है कुछ खेल दिखाना है हमने
धरती को उठाकर हाथों में दुलहन सा सजाना है हमने ।
मन के सच्चे धुन के पक्के
अब करके रहेंगे हम अपनी ।।

रचनाकाल : जुलाई 1979