भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाओ / साकि़ब लखनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


क़ैद करता मुझको लेकिन जब गुज़र जाती बहार।
क्या बिगड़ जाता ज़रा-सी देर में सैयाद का॥

चोट देकर आज़माते हो दिले-आशिक़ का सब्र।
काम शीशे से नहीं लेता कोई फ़ौलाद का॥